Pushpendra aka Pasha – writes (which itself is a rare event 😉 ) about his journey at farm’s learning center. While it’s a long story and I’d someday write a blog myself on what presence of pasha means to farm and the learning center, but for now just dive into his witty, humorous yet intense piece of writing. For those who cannot read Hindi , try the AI summary at the end or just google translate 😉 – Shashi )
Its been two years… shifting the gears…
Zarrra sa courage and so much fear…
of what ?…I don’t know….
where to go…. fly high or rest in low…
With lots of laughs and do-chaar tears…
Oh my goddess…its been two years…..
So… what’s the improvement ?

ऐसा लोग पूछते हैं कभी कभी… मेरे लिए नहीं बच्चों के लिए… लर्निंग सेंटर के…, लर्निंग सेंटर तो पता है ना… वो फ़ार्म एंट्री पे बड़ी सी बिल्डिंग… अभी मैं चला रहा हूँ उसको दो साल से जैसे-तैसे… बाय द वे… मैं पुष्पेंद्र हूँ (सॉरी… इस ब्लॉग में शशि नहीं है… 😁… झेलो)…
हाँ तो लर्निंग सेंटर… और इम्प्रूवमेंट!!… तो पहले तो मैंने ही क्रॉस क्वेश्चन किया कि इम्प्रूवमेंट मतलब क्या?… तभी तो बात हो पाएगी ना कि वो हुआ या नहीं… वैसे तो हम भी इम्प्रूवमेंट वाले कॉन्सेप्ट से आए थे इधर… हीरो टाइप बनकर… स्वदेश मूवी के शाहरुख़ ख़ान टाइप्स… कि गाँव के बच्चों को पढ़ाएंगे… आगे बढ़ाएंगे… कुछ बड़ी-बड़ी एजुकेशन की थ्योरीज़ की बातें तो यहाँ चल ही रही थीं पहले से… ओशो, कृष्णमूर्ति, अल्टरनेटिव, होमस्कूलिंग, जिनान… और पता नहीं क्या क्या… और हम भी रहे फिलोसोफर की पूँछ… पर इधर के बच्चों ने ऐसी क्लास ली… कि सब अपना गुड़-गोबर हो गया… ऑर्गेनिक वाला…
वैसे ऑर्गेनिक से याद आया कि लर्निंग सेंटर जिन लोगों ने ऐक्चुअली स्टार्ट किया था वो सब निकल लिए जब मैं आया… यहाँ तक कि शशि भैया भी… बोले कि तुम देख लो अब जो करना है, हम तो चले… तो मैं तो अकेला फँस गया… अपने को कोई एक्सपीरियंस ही नहीं… हमने कुछ किया ही नहीं ज़िंदगी में आराम के अलावा… तो मैंने कहा उनसे कि अब तो जो ‘ऑर्गैनिकली’ होगा वो होता जाएगा…

हाँ तो धीरे-धीरे थ्योरीज़, आइडियाज़, डिस्कशन वगैरह-वगैरह सब फ़ेल होते गए… पास कहाँ से होते, हम खुद ही एक फ़ेल हैं लाइफ़ में… ऊपर से आलसी… पास हो भी जाएँ तो अप्लाई कौन करे…
तो अब क्या?… कुछ नहीं… स्टोरी ख़त्म…? नहीं जी, असली बात तो करनी बाक़ी है… पर वो भी कर पाएँगे या नहीं… कोई भरोसा नहीं… ये तो भूमिका थी…
हाँ तो चूँकि अब बच्चों ने हमें हीरो से ज़ीरो कर दिया… तो अब मेरे लिए सवाल ये नहीं है कि what’s the improvement… और I really do not care… अब सवाल ये है कि what is improvement… for a child to become an adult?… मैथ्स, साइंस, इंग्लिश, डांस, म्यूज़िक, स्पोर्ट्स, गेमिंग, पेंटिंग, नेचर, फार्मिंग, कुकिंग, एक्टिविटी, ट्रैवेलिंग, फ़िलॉसफ़ी, स्पिरिचुअलिटी, स्किल, नॉलेज, हेल्थ, जॉब, बिज़नेस, एन्त्रप्रेन्योरशिप, सोशल वर्क, राइट, लेफ़्ट, पैट्रियॉटिज़्म, एथिक्स, वैल्यूज़, रिलिजन, मेनस्ट्रीम, अल्टरनेटिव, स्कूलिंग, नॉन-स्कूलिंग, होमस्कूलिंग… आदि आदि… थक गया यार लिखते-लिखते… ये सब तो ऐसा है कि ज़बरदस्ती दुनिया सिखा ही देती है… चाहो या न चाहो… तो क्या ये कोई इम्प्रूवमेंट है एक इंसान के लिए?…
एक्चुअली मुझे नहीं पता… हो भी सकता है… मुझे भी लगता था कि खूब सारा एक्सपीरियंस होना, खूब सारा ज्ञान होना… एकदम महागुरु टाइप्स… बड़ी-बड़ी दाढ़ी वाला… या फिर कोई मैड साइंटिस्ट होना, या कोई फ़ेमस सेलिब्रिटी होना… या कोई बहुत बड़ा समाज सुधारक होना, लीडर टाइप्स… या “हम दो हमारे दो” और वो… वो यानी सरकारी नौकरी… ये सब होता होगा इम्प्रूवमेंट एक इंसान होने के नाते…

पर ये बच्चे… ये आदिवासी बच्चे… ये जंगल में रहने वाले बच्चे… इनको देखते-देखते तो ऐसा लगने लगा है कि कहीं किसी इम्प्रूवमेंट की ज़रूरत ही नहीं है… अगर सब ऐसे ही हो जाएँ (हाँ हाँ ये स्टेटमेंट थोड़ा ज़्यादा हो गया… ऐसा तो कैसे हो सकता है)… और नेचर अपने-आप सिखाए जा रही है… जो भी जीने के लिए ज़रूरी है… किसी को प्यार से… किसी को मार-मार के…और बहुत कुछ फ़ालतू भी सिखाए जा रही है… जो कचरे जैसा भरा रहता है अंदर… पता ही नहीं चलता ज़िंदगी भर कि इसका क्या करना है… पता नहीं नेचर को भी क्या मज़ा आ रहा है…
और फिर ऊपर से इंसान… इसको लग रहा है कि सब अज्ञानी हैं, मूर्ख हैं, सबको पढ़ाओ, डंडा मार-मार के… वैसे मैं सोचता हूँ ज़्यादातर सो-कॉल्ड पढ़ाई-लिखाई तो इंसान के असुरक्षा के भाव को और तृष्णा को भरने के लिए ही काम कर रही है… जो शायद कभी भरने नहीं वाले…
और ये तो कोई रॉकेट साइंस नहीं, ये जीवन की एक सामान्य-सी अंडरस्टैंडिंग है… इसके लिए कोई डिग्री लेने की या हिमालय पे जाने की ज़रूरत तो है नहीं… तो पता नहीं लोग क्यों छोटे-छोटे बच्चों को बैल बनाए जा रहे हैं… मेरा “पता नहीं” मतलब सच में “पता नहीं” ही है… हो सकता है नेचर भी चाहती हो सबको बैल ही बनाना…
एनीवे, हो सकता है वही सही हो जो मेनस्ट्रीम में हो रहा है… या हो सकता है… वो सही है जो अभी साइडस्ट्रीम्स में हो रहा है… या वो जो अभी हो ही नहीं रहा… या तो पास्ट में है या फ़्यूचर में या किसी बड़े ज्ञानी के दिमाग़ में… पता नहीं…
और “पता नहीं” का मतलब सच में “पता नहीं”… वो क्या है जो मैं देख रहा हूँ होते हुए… और जो अनुभव कर रहा हूँ इन बच्चों के साथ दो साल से… बताना तो बहुत ही ज़्यादा कठिन है…

पर जो कर्म के माध्यम से करता हुआ दिखाई दे रहा हूँ… वो है बहुत थोड़ी-सी पढ़ाई-लिखाई… हाँ वही मेनस्ट्रीम वाली… थोड़ा-सा खेलकूद… थोड़ा-सा नाचना-गाना, खाना-पीना, घूमना-फिरना आदि आदि… और बहुत सारी बातें…
अब तो कौन सिखाने वाला है और कौन सीखने वाला है… मुझे पता ही नहीं… और “पता नहीं” मतलब सच में पता नहीं… एक बरसाती झरने के जैसा बह रहा है सब कुछ… कभी-कभी सोचता हूँ इसका नाम “मस्ती सेंटर” रख दूँ… पर सुनने में “लर्निंग सेंटर” अच्छा लगता है… आखिर बाहर के लोगों को धोखे में भी तो रखना है… (वैसे सबको पता ही है)…
अब ये कोई सच में नेचर का एक्सपेरिमेंट हो या बस मेरा एक टाइमपास… मुझे पता नहीं… हमने जो अनुभव किया साथ में, मेरे लिए तो वही हमारा इम्प्रूवमेंट है… शायद कभी जीवन में काम आए या शायद नहीं भी… जैसे कोई दोस्त ज़िंदगी में बनता है गहरा और कुछ समय साथ रहता है… वो क्या इम्प्रूवमेंट कर जाता है हमारे भीतर या नहीं भी करता… पर कुछ तो कर जाता है हर एक अच्छा दोस्त… बस वैसा ही कुछ…
ख़ैर मैं तो नहीं पता कर पाया, न बता पाया कि what is ‘improvement’… अगर किसी को पता हो तो प्लीज़ बता देना… मुझे नहीं… जो पूछे कि what’s the improvement… I really care no more… बस इतना ही कह सकता हूँ… थर्मामीटर से दूध का वज़न कैसे नाप दूँ?

(ध्यान से देखिए इसे… यही है वो आदमी जिसने ये सब रायता फैलाया है… इससे बचके रहना, नहीं तो ये आपको भी अपनी गाड़ी पर कहीं-ना-कहीं तो बिठा ही लेगा… भले ही गाड़ी पर जगह ही ना हो.. ;-))
PS: – वैसे हर तीन-चार महीने में लगने लगता है कि अब तो ख़त्म कहानी लर्निंग सेंटर की… पर बहुत खिंच गई गाड़ी… तो और आगे देखते हैं कहाँ तक जाती है… well it’s been two years…. ;-D

(लास्ट में ये एक और इमोजी… पीले रंग वाला)
अरे यार… इतना लिखने के बाद भी मैं नहीं लिख पाया ढंग से… साला ए.आई. ने कॉन्क्लूड कर दिया उससे भी अच्छा… ये देखो… (AI Summary)…
The author, Pushpendra, reflects on two years of running a learning center, initially questioning the concept of “improvement.” He describes how his initial “hero-like” approach to educating rural children was challenged by the children themselves, leading him to abandon many educational theories. He inherited the learning center when the original founders left. He now questions what “improvement” truly means, as the children, through nature, seem to learn what’s necessary for life without formal education. He feels that much of conventional learning serves human desires and insecurities that are never fulfilled. He now focuses on a mix of mainstream education, play, activities, and conversations, blurring the lines between teacher and student. He concludes that their shared experiences are their “improvement,” even if their purpose isn’t immediately clear, and he no longer cares about what others define as improvement. He also mentions the learning center’s continued existence despite periodic thoughts of its end.
-Pushpendra aka Pasha – 16 August 2025